क्या होता अगर रविवार "परिवार दिवस" होता ?
आपको सुनकर अजीब लगा होगा , क्या आपको याद है, आखिरी बार कब हम अपने दादी की कहानियाँ सुने थे नहीं ना अब ओ दिन सिर्फ ‘Netflix Day’ बन गया है।

जब हम कहते है की ‘दादी कहानी सुनाओ ‘, तो वो सिर्फ एक कहानी नहीं होती थी वो एक भाव,एक जुड़ाव,एक रिश्ता। लेकिन अब उस जगह को Netflix, youtube और Reels ने ले लिया है।
इंसान ऑनलाइन तो है, लेकिन ऑफलाइन हो गया है, अपनो से घर में सब एक ही छत के नीचे रहते है, लेकिन अलग अलग स्क्रीनों में उलझे हुए रहते है। नेट से हम सब जुड़ तो गए , लेकिन अपनो से अलग हो गए है। रविवार को भी सही से परिवार के साथ समय खर्च नहीं कर पाते है।
ऐसे में हर रविवार को नेट सेवाओं को बंद करने की मांग अब सिर्फ एक सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य की जरूरत बनती जा रही है। क्या याद है कब हम सबने रविवार परिवार, दोस्त के साथ मिलकर कुछ खेला, गपशप की है? नहीं ना
रिश्तों में वार्तालाप की जगह अब Phone, Double Tap और seen ने लेली है।
मस्तिष्क पर क्या असर पड़ रहा है?
हर बार सोशल मीडिया से लगे रहते हैं,तो Dopamine (सुख का हार्मोन) रिलीज होता है।
- धीरे धीरे Dopamine उसके पीछे भागने लगता है।
- इसके कारण हम सब चिड़चिड़े हो जाते है, किसी चीज पे ज्यादा फोकस/ ध्यान नहीं दे पाते।
- अकेलापन महसूस होने लगता है, भले ही 100 लोग ऑनलाइन क्यों न हो।
ये हमे या आप सब के ही नहीं दुनिया के हर ओ व्यक्ति में है जो Social media से जुड़ा हुआ है।
Screen Figure आज दुनिया में एक “Psychological समस्या” बन चुकी है। इसी वजह से लोग एक दूसरे से अलग हो रहे हैं, दोस्त भी ऑनलाइन है, ऑफलाइन बहुत कम मिलना जुलना, परिवार भी “video call” तक ही है।
परिवार जो टूट रहा क्या फिर से जुट सकता है -हां
हर रविवार को अगर नेट की सुविधा सुबह 5 बजे से शाम 9 बजे तक बंद कर दी जाए।
- मां-बेटे/बेटी साथ में बैठकर कुछ यादें बांट सकते हैं।
- पिता अपने बच्चे के साथ क्रिकेट या शतरंज खेल सकते हैं।
- भाई बहन साथ में कुछ Experiment कर सकते हैं, जो बचपन में हम सब करते थे।
- दोस्त शाम को एक साथ बैठकर मनोरंजन कर सकते हैं।
- मानसिक तनाव घटेगा
- स्क्रीन टाइम कम होगा
- नींद सुधरेंगी
- रिश्तों के वापसी आएंगी।
यानी “डिजिटल डिटॉक्स रविवार” परिवारों को फिर से ‘Emotionally Recharge’ कर सकता है।

एक छोटा सा काम बरा बदलाव,लेकिन कम्पनियां कहेंगी कि “नेट बंद” करने से बिजनेस पे असर पड़ेगा,लेकिन सवाल यह है कि जब इंसान ही अपने “परिवार से डिसबैलेंस्ड” हो जाएंगे तो कौन बिजनेस, जो इंसानियत से बरा हो गया है।
कम्पनियां और सरकार से सब लोग यही अपील कीजियेगा कि केवल रविवार के दिन कुछ घंटों के लिए केवल नेट की सुविधा ना की कॉल की सुविधा बंद कर दी जाए क्योंकि आपातकाल में लोग एक दूसरे से मिल सके। इससे तकनीकों की रुकावट नहीं होगी , बल्कि भावनाओं की मरम्मत होगी।
इंटरनेट ने लोगों बहुत कुछ दिया है, लेकिन अगर हर सप्ताह एक दिन रविवार को लोगों को थोड़ा विराम दे , तो लोग शायद खुद को अपने आप को फिर से पा सके।
Emile Durkheim जैसे समाजशास्त्री ने कहा था, जब व्यक्ति समाज से कटने लगता है तो समाज में अलगाव पैदा होने लगता है। ये अलगाव हम सब ने हर कॉलोनी, मोहल्ले में देख रहे हैं।
- पड़ोसी अब सिर्फ Wifi पासवर्ड मांगने आते हैं।
- किसी के घर दुःख – सुख हो , कोई जानने तक नहीं जाते।
- चेहरे का Impression Emoji से देखा जा रहा है।
- मानवता का असली चेहरा स्क्रीन के पीछे नहीं , सामने बैठा व्यक्ति है।
ओ दौर अब खत्म हो गया है,जब शाम में गांव के लोग एक साथ बैठकर “चौपाल” पे मनोरंजन करते थे।
ये समाज को तोड़ेगा बल्कि जोड़ेगा